पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१९८

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गोस्वामी तुलसीदास ] १६ [ 'हरिऔध' नैहर जनम भरव बरु जाई। .... जित न करब सवति सेवकाई । -रामायण २-मोकहँ झूठहिं दोष लगावहिं । मइया इनहिं बान परगृह को नाना जुगुति बनावहिं। इन्ह के लिये खेलिबो छोखो तऊ न उबरन पावहिं। भाजन फोरि षोरि कर गोरस देन उरहनो आवहिं । कबहुँक बाल रोवाइ पानि गहि। एहि मिस करि उठि धावहिं । करहिं आप सिर धरहिं आन के बचन बिरंचि हस्तरि। मेरी टेव बूम हलधर सों सतत संग खेलावहिं। जे अन्याउ करहिं काहू को ते सिसु मोहिं न भावहिं। सुनि सुनि बचन-चातुरी ग्वालिनि हँसि-हँसि बदन दुरावहिं। बाल गोपाल केलि कल कीरति । तुलसिदास मुनि गावहिं। कृष्ण गीतावली। रामायण का पद्य अवधी बोलचाल का बड़ा ही सुन्दर नमूना है। उसमें भावुकता कितनी है और मानसिक भावों का कितना सुन्दर चित्रण है इसको प्रत्येक सहृदय समझ सकता है। स्त्री-सुजम प्रकृति