पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१९७

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गोस्वामी तुलसीदास] १६८ [ 'हरिऔध' करि कुरूप बिधि परपस कीन्हा । - षवा सो लुनिय लहिय जो दीन्हा । कोउ नृप होइ हमैं का हानी। चेरि छाँडि अब होब कि रानी। जारइ जोग सुभाउ हमारा । अनभल देखि न जाइ तुम्हारा। तातें कछुक बात अनुसारी। छमिय देवि बड़ि चूक हमारी। तुम्ह पूछउ मैं कहत डराऊँ। घरेउ मोर घरफोरी नाऊँ। . रहा प्रथम अब ते दिन बीते। र समउ फिरै रिपु होइ पिरीते। जर तुम्हारि चह सवति उखारी। सँधहु करि उपाइ बर बारी। तुम्हहिं न सोच सोहाग बल, निज बस जानहु राउ । मन मलीन मुँहु मीठु नृप, राउर सरल सुभाउ । जौ असत्य कछु कहब बनाई। वौ विधि देइहि हमहिं सजाई। रेख बँचाइ कहहुँ बल भाखी। . भामिनि भइहु द्ध कै माखी। काह करउँ सखि सूष सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ।