गोस्वामी तुलसीदास ] २०५ ['हरिऔध' आवत हो हरखै नहीं, नैनन नहीं सनेह । तुलसी तहाँ न जाइये कंचन बरसै मेह । तुलसी मिटै न मोह तम किये कोटि गुन ग्राम । हृदय कमल फूलै नहीं पिनु रवि कुल रवि राम । अमिय गारि गारेउ गरल नारि करी करतार । प्रेम बैर की जननि जुग जानहिँ बुध न गवार । -दोहावली ब्रजभाषा और अवधी के विशेष नियम क्या हैं, मैं इसे पहले लिख चुका हूँ। गोस्वामीजी की रचना में भी अवधी और ब्रज-भाषा के नियमों का पालन पूर-पूारा हुआ है । मैं उनकी रचना की पंक्तियों को लेकर इस बात को प्रमाणित कर सकता हूँ, किन्तु यह बाहुल्य रोगा। गोस्वामीजी की उद्धृत रचनाओं को पढ़कर आप लोग स्वयं इस बात को समझ सकते हैं कि उन्होंने किस प्रकार दोनों भाषाओं के नियमों का पालन किया । मैं उसका दिग्दर्शन मात्र ही करूंगा। युक्ति विकर्ष के प्रमाणभूत ये शब्द हैं, गरब, अरध, मूरति । कारकों का लोप इन वाक्यांशों में पाया जाता है—'बोरि कर गोरस', 'बाल रोवाइ', 'सिर धरहिं आन के', 'बचन बिरंचि हरावहिं', 'पालने पौढ़िये, 'किलकनि खानि', तुलसी भनिति', 'सोने चोंच महों', 'रामलखन उर लैहौं', 'वेद' बड़ाई' 'जगत मातु' । 'श', 'ण' 'क्ष' इत्यादि के स्थान पर 'स', 'न', 'छ', का ब्यवहार 'सिंगारू', 'प्रसंसा', 'परबस', सिसु', 'पानि' 'भरन', 'गनक', 'लच्छि' आदि में है। पञ्चम वर्ण की जगह पर अनुस्वार का प्रयोग 'मंजुल', 'बिरंचि', 'कंचनहि' आदि में मिलेगा। शब्द के आदि के 'य', के स्थान पर 'न' का व्यवहार
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