पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२०३

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गोस्वामी तुलसीदास ] २०४ [ 'हरिऔध' परवस जानि हस्यों इन इन्द्रिन निज बस है न हँसैहौँ । मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद कमल बसैहौं । -विनय पत्रिका ९-गरब करहु रघुनन्दन जनि मन माह । देखहु भापनि मूरति सिय के छाँह । डहकनि है जियरिया निसि नहिं घाम जगत जरत अस लागइ मोहि बिनु राम । अब जीवन के है कपि त्रास न कोइ । कनगुरिय के मुंदरी कँगना होइ । स्यामा गौर दोउ मूरति लछिमन राम । इनते भई सित कीरति अति अभिराम । विरह आग उर ऊपर जब अधिकाइ । ए अँखिया दोउ बैरिन देहिँ बुत्ताइ । सम सुबरन सुखमाकर सुखद न थोर । सीय अंग सखि कोमल कनक कठोर । -बरवै रामायण १०-तुलसी पावस के समै धरी कोकिला मौन । अब तो दादुर बोलिहैं हमैं पूछिहैं कौन । हृदय कपट बर बेष धरि वचन कहैं गढ़ि छोलि । अब के लोग मयूर ज्यों क्यों मिलिये मन खोलि ।