कविवर बिहारीलाल ] २३१ ।। [ 'हरिऔध' दृष्टिगत होता है। परन्तु मेरा विचार है कि रस निचोड़ने में बिहारी- लाल इस ग्रन्थों के रचयितात्रों से अधिक निपुण हैं। जिन विषयों का उन लोगों ने विस्तृत वर्णन करके भी सफलता नहीं प्राप्त की, उनको बिहारी ने थोड़े शब्दों में लिखकर अद्भुत चमत्कार दिखलाया है। इस अवसर पर कृपाराम की 'हित-तरंगिनी' भी स्मृति-पथ में आती है। परन्तु प्रथम तो उस ग्रन्थ में लगभग चार सौ दोहे हैं, दूसरी बात यह कि उमकी कृति में ललित कला इतनी विकसित नहीं है जितनी बिहारी- लाल को उक्तियों में । उन्होंने संक्षिप्तता का राग अलापा है, परन्तु बिहारी- लाल के समान वे इत्र निकालने में समर्थ नहीं हुए। उनके कुछ दोहे नीचे लिखे जाते हैं । उनको देखकर आप स्वयं विचारें कि क्या उनमें भी वही सरसता, हृदय-ग्राहिता और सुन्दर शब्द चयन-प्रवृत्ति पायी जाती है, जैसी बिहारीलाल के दोहों में मिलती है ? लोचन चपल कटाच्छ सर, अनियारे विष पूरि । मन मृग बेधैं मुनिन के, जगजन सहित विसूरि ॥ आजु सबारे हौं गयी नंदलाल हित ताल । कुमुद कुमुदिनी के भटू, निरखे औरै हाल ॥ पति आयो परदेस ते ऋतु बसंत की मानि । झमकि ममकि निज महल में टहलै करै सुरानि ॥ बिहारी के दोहों के सामने ये दोहे ऐसे ज्ञात होते हैं जैसे रेशम के लच्छों के सामने सूत के डोरे । संभव है कि हित-तरंगिणी को बिहारी लाल ने देखा हो, परन्तु वे कृपाराम को बहुत पीछे छोड़ गये हैं। मेरा विचार है कि बिहारीलाल की रचनाओं पर यदि कुछ प्रभाव पड़ा है तो उस काल के प्रचलित फारसी साहित्य का । उर्दू शायरी का तो तब तक जन्म भी नहीं हुआ था। फ़ारसी का प्रभाव उस समय अवश्य देश
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