पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२३१

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कविवर बिहारीलाल ] २३२ [ 'हरिऔध' में विस्तार लाभ कर रहा था क्योंकि अकबर के समय में ही दफ्तर फ़ारसी में हो गया था और हिन्दू लोग फ़ारसी पढ़कर उसमें प्रवेश करने लगे थे। फ़ारसी के दो बन्द के शेरों में चुने शब्दों के आधार से वैसी ही बहुत कुछ काव्य-कला विकसित दृष्टिगत होती है जैसी कि बिहारीलाल के दो चरण के दोंहों में। उत्तरकाल में उर्दू शायरी में फारसी रचनाओं का यह गुण स्पष्टतया दृष्टिगत हुआ। परन्तु बिहारीलाल की रचनाओं के विषय में असंदिग्ध रीति से यह बात नहीं कही जा सकती,क्योंकि अबतक बिहारीलाल के विषय में जो कुछ ज्ञात है उससे यह पता नहीं चलता कि उन्होंने फारसी भी पढ़ी थी। जो हो, परन्तु यह बात अवश्य माननी पड़ेगी कि बिहारीलाल के दोहों में जो थोड़े में बहुत कुछ कह जाने की शक्ति है वह अद्भुत है। चाहे यह उनकी प्रतिभा का स्वाभाविक विकास हो अथवा अन्य कोई आधार, इस विषय में निचित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। अब मैं उनको कुछ रचनाएँ आप लोगों के सम्मुख उपस्थित करूँगा। बिहारीलाल को शृंगार रस का महाकवि सभी ने माना है। इसलिए उसको छोड़कर पहले मैं उनकी कुछ अन्य रस की रचनाएँ आप लोगों के सामने रखता हूँ। आप देखिये कि उनमें वह गुण और वह सारग्राहिता है या नहीं जो उनकी रचनाओं की विशेषताएँ हैं। संसार का जाल कौन नहीं तोड़ना चाहता, पर उसे तोड़ कौन सका ? मनुष्य जितनी ही इस उल्झन के सुलझाने की चेष्टा करता है उतना ही वह उसमें उलझता जाता है। इस गम्भीर विषय को एक अन्योक्ति के द्वारा बिहारीलाल ने जिस सुन्दरता और सरसता के साथ कहा है वह अभूतपूर्व है। वास्तव में उनके थोड़े से शब्दों ने बहुत बड़े व्यापक सिद्धान्त पर प्रकाश डाला है:- को छूट्यो येहि जाल परि, कत कुरंग अकुलात । ज्यों-ज्यों सुरुमि भज्यो चहै, त्यो त्यों अरुम्यो जात ॥