पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२३२

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कविवर बिहारीलाल ] २३३ [ 'हरिऔध' यौवन का प्रमाद मनुष्य से क्या नहीं कराता है, उसके प्रपंचों में पड़कर कितने नाना संकटों में पड़े, कितने अपने को बरबाद कर बैठे, कितने पाप-पंक में निमम हुए, कितने जीवन से हाथ धो बैठे और कितनों ही ने उसके रस से भीगकर अपने सरस जीवन को नीरस बना लिया । हम-श्राप नित्य इस प्रकार का दृश्य देखते रहते हैं । इस भाव को किस प्रकार बिहारीलाल चित्रण करते हैं, उसे देखिये- इक भीजे चहले परे बूड़े बहे हजार । किते न औगुन जग करत बै नै चढ़ती बार ॥ परमात्मा आँख वालों के लिए सर्वत्र है। परन्तु आजतक उसको कौन देख पाया ? कहा जा सकता है कि हृदय की अाँख से ही उसे देख सकते हैं, चर्म-चक्षुओं से नहीं। चाहे जो कुछ हो, किन्तु यह सत्य है कि वह थैसर्वव्यापी है और एक-एक फूल और एक-एक पत्ते में उसकी विद्य- मान है। शास्त्र तो यहाँ तक कहता हैं कि 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्तिकिंचन' । जो कुछ संसार में है वह सब ब्रह्म है, इसमें नानात्व कुछ नहीं है। फिर क्या रहस्य है कि हम उसको देख नहीं पाते ? बिहारीलालजी इस विषय को जिस मार्मिकता से समझाते हैं, उसकी सौ मुख से प्रशंसा की जा सकती है। वे कहते हैं:- जगत जनायो जो सकल सो हरि जान्यो नाहिं। जिमि आँखिन सब देखिये आँखि न देखी जाहिं ॥ एक उर्दू शायर भी इस भाव का इस प्रकार वर्णन करता है: - बेहिजाबी वहकि जल्वा हर जगह है आशिकार। ... इसपर चूँघट वह कि सूरत आजतक नादीदा है ॥ . यह शेर भी बड़ा ही सुन्दर है। परन्तु भाव-प्रकाशन किसमें किस कोटि का है इसको प्रत्येक सहृदय स्वयं समझ सकता है।