सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कविवर देव ] २५१ [ 'हरिऔध' लागो कौन पाप पल ऐकौ न परति कल दूरि गयो गेह नयो नेह. नियरे परो। .. होतो जो अजान तौ न जानतो इतीक बिथा.. मेरे जिये जान तेरो जनिबो गरे परो। (१५) तेरो कह्यो करि करि जीव रखो जरि जरि.. हारी पाँय परि परि तऊ ते न की सम्हार । ललन बिलोके 'देव' पल न लगाये तब यो कल न दीन तैं छलन उछलनहार । ऐसे निरमोही सों सनेह बाँधि हौ बँधाई आपु बिधि बूड्यो माँझ बाधा सिंधु निराधार । एरे मन मेरे ते घनेरे दुख दीने अब ___ एकै वार दै तोहिं मूंदि मारौ एक बार। देव की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उनकी लेखनी ने उसमें साहित्यिकता की पराकाष्ठा दिखलायी है। उनकी रचनात्रों में शब्द- लालित्य नर्तन करता दृष्टिगत होता है और अनुप्रास इस सरसता से आते हैं कि अलंकारों को भी अलंकृत करते जान पड़ते हैं। यह में स्वीकार करूँगा कि उन्होंने कहीं-कहीं अनुप्रास, यमक आदि के लोभ में पड़कर उन्हों ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो गढ़े अथवा तोड़े-मरोड़े जान पड़ते हैं । परन्तु वे बहुत अल्प हैं और उनकी मनोहर रचना में आकर मनोहरता ही ग्रहण करते हैं, अमनोहर नहीं बनते । ब्रजभाषा के जितने नियम हैं उनका पालन तो उन्होंने किया ही है, प्रत्युत उसमें एक ऐसी सरस धारा भी बहा दी है जो बहुत ही मुग्धकरी है और जिसका