कविवर भारतेन्दु ] २५५ । - [ 'हरिऔध' कोई रीति ग्रन्थ लिखा है और न कोई प्रबंध-काव्य । किन्तु उनकी स्फुट रचनाएँ इतनी अधिक हैं जो सर्वतोमुखी प्रतिभावाले मनुष्य द्वारा ही प्रस्तुत की जा सकती हैं। उन्होंने होली आदि, पर्वो, त्योहारों और उत्सवों पर गाने योग्य सहस्रों पद्यों की रचना की है। प्रेम-रस से सिक्त ऐसे-ऐसे कवित्स और सवैये बनाये हैं जो बड़े ही हृदयग्राही हैं। जितने नाटक या अन्य गद्य ग्रन्थ उन्होंने लिखे हैं, उन सबमें जितने पद्य आये हैं वे सब ब्रजभाषा ही में लिखे गये हैं। इतने प्राचीनता-प्रेमी होने पर भी उनमें नवीनता दृष्टिगत होती है। वे देश-दशा पर अश्रु बहाते हैं, जाति-ममता का राग अलापते हैं, जाति की दुर्बलताओं की ओर जनता की दृष्टि आकर्षित करते हैं, और कानों में वह मंत्र फूंकते हैं जिससे चिरकाल की बन्द आँखें खुल सकें । उनके 'भारत-जननी' और 'भारत-दुर्दशा' नामक ग्रंथ इसके प्रमाण हैं । बाबू हरिश्चन्द्र ही वह पहले पुरुष हैं जिन्होंने सर्व- प्रथम हिन्दी साहित्य में देश-प्रेम और जाति-ममता की पवित्र धारा बहायी। वे अपने समय के मयंक थे। उनकी उपाधि 'भारतेन्दु' है । इस मयंक के चारों ओर जो जगमगाते हुए तारे उस समय दिखलायी पड़े, उन सब में भी उनकी कला का विकास दृष्टिगत हुआ। सामयि- कता की दृष्टि से उन्होंने अपने विचारों को कुछ उदार बनाया और ऐसे भावों के भी . पद्य बनाये जो धार्मिक संकीर्णता को व्यापकता में परिणत करते हैं। 'जैन-कुतूहल' उनका ऐसा ही ग्रन्थ है। उनके समय में उर्दू शायरी उत्तरोत्तर समुन्नत हो रही थी। उनके पहले और उनके समय में भी उर्दू भाषा के ऐसे प्रतिभाशाली कवि उत्पन्न हुए जिन्होंने उसको चार चाँद लगा दिये । उनका प्रभाव भी इनपर पड़ा और इन्होंने अधिक उर्दू शब्दों को ग्रहणकर हिन्दी में फूलों का गुच्छा' नामक ग्रंथ लिखा जिसमें लावनियाँ हैं जो खड़ी बोली में लिखी गयी हैं । वे यद्यपि हिन्दी भाषा ही में रचित हैं, परन्तु उनमें उर्दू का पुट पर्याप्त
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