कविवर भारतेन्दु ] २५६ ['हरिऔध' है। यदि सच पूछिये तो हिन्दी में स्पष्ट रूप से खड़ी बोली रचना का प्रारम्भ इसी ग्रंथ से होता है। मैं यह नहीं भूलता हूँ कि यदि सच्चा श्रेय हिन्दी में खड़ी बोली की कविता पहले लिखने का किसी को प्राप्त है तो वे महन्त सीतलदास हैं । वरन मैं यह कहता हूँ कि इस उन्नीसवीं शताब्दी में पहले पहल यह कार्य भारतेन्दुजी ही ने किया। कुछ लोग उसको उर्दू की ही रचना मानते हैं, परन्तु मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं । इसलिए कि जैसे हिन्दी भाषा और संस्कृत के तत्सम शब्द उसमें आये हैं वैसे शब्द उर्दू की रचना में आते ही नहीं । ____ बाबू हरिश्चन्द्र नवीनता-प्रिय थे और उनकी प्रतिभा मौलिकता से स्नेह रखती थी। इसलिए उन्होंने नयी-नयी उद्भावनाएँ अवश्य की, परन्तु प्राचीन ढंग की रचना ही का श्राधिक्य उनकी कृतियों में है। ऐसी ही रचना कर वे यथार्थ, श्रानन्द का अनुभव भी करते थे। उनके पद्यों को देखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। उनके छोटे बड़े ग्रंथों की संख्या लगभग १०० तक पहुँचती है। इनमें पद्य के ग्रंथ चालीस- पचास से कम नहीं हैं। परन्तु ये समस्त ग्रंथ लगभग ब्रजभाषा ही में लिखे गये हैं। उनकी भाषा सरस और मनोहर होती थी। वैदर्भी वृत्ति के ही वे उपासक थे। फिर भी उनकी कुछ रचनाएँ ऐसी हैं जो अधि- कतर संस्कृत गर्भित हैं। वे सरल से सरल और दुरूह से दुरूह भाषा लिखने में सिद्धहस्त थे । ग़जलें भी उन्होंने लिखी हैं जो ऐसी हैं जो उर्दू के उस्तादों के शेरों की समता करने में समर्थ हैं। मैं पहले कह चुका हूँ कि वे प्रेमी जीव थे। इसलिए उनकी कविता में प्रेम का रंग बड़ा गहरा है। उनमें शक्ति भी थी और भक्तिमय स्तोत्र भी उन्होंने अपने इष्टदेव के लिखे हैं, परंतु जैसी उच्च कोटि की उनकी प्रेम संबंधी रचनाएँ हैं वैसी अन्य नहीं। उनकी कविता को पढ़कर यह ज्ञात होता है कि उनकी कविकृति इसी में अपनी चरितार्थता समझती है कि वह भगवल्लीला-मयी हो। वे विचित्र स्वभाव के थे। कभी तो यह कहतेः-
पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२५५
दिखावट