पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२५८

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कविवर भारतेन्दु ] २५६ [ 'हरिऔध' प्यारे जू है जग की यह रीति बिदा के समै सब कंठ लगावैं । ५-पियारो पैये केवल प्रम में। नाहिं ज्ञान मैं, नाहिं ध्यान मैं, नाहिं करम कुल नेम मैं । नहिं मंदिर मैं, नहिं पूजा मैं, नहिं घंटा की घोर मैं। हरीचंद वह बाँध्यो डोलै एक प्रेम की डोर मैं ॥ ६-सम्हारहु अपने को गिरधारी । मोर मुकुट सिरपाग पेच कसि राखहु अलक सँवारी। हिय हलकन बनमाल उठावहु मुरली धरहु उतारी। चक्रादिकन सान दै राखो कंकन फंसन निवारी । नूपुर लेहु चढ़ाय किंकिनी खींचहु करहु तयारो। पियरो पट परिकर कटि कसिके बाँधो हो बनवारी। हम नाहीं उनमें जिनको तुम सहजहिं दीन्हों तारी। बानो जुगओ नीके अबकी हरीचंद की बारी। एक उर्दू की ग़ज़ल भी देखिये:- ७-दिल सेरा ले गया दग़ा कर के। बेवफा हो गया वफ़ा कर के। हिन की शव घटा ही दो हमने । दास्ताँ जल्फ को बढ़ा करके । वके रहलत जो आये बाली पर । खूब रोये गले लगा कर के॥