पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२५७

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कविवर भारतेन्दु] २५८ [ 'हरिऔध' २-हौं तो याही सोच में विचारत रही रे काहे दरपन हाथ ते न छिन बिसरत है। त्यों ही हरिचंद जू वियोग औ सँजोग दोऊ । एक से तिहारे कछु लखि न परत है। जानी आज हम ठकुरानी तेरी बात तू तो - परम पुनीत प्रेम - पथ विचरत है। तेरे नैन मूरति पियारे की असति ताहि आरसी में रैन दिन देखियो करत है। ३-जानि सुजान हौं नेह करी सहि ___ कै बहुभाँतिन लोक हँसाई । त्यों हरिचंद जूं जो जो कह्यो सो कस्यो चुप है करि कोटि उपाई। सोऊ नहीं निबही उन सों उन तोरत बार कळू न लगाई। साँची भई कहनावति वा परी ऊँची दुकान की फीकी मिठाई । ४- आजु लौं जौ न मिले तो कहा। हम तो तुम्हरे सब भाँति कहावै । मेरो उराहनो है कछु नाहिं सबै फल आपने भाग को पावै । जो हरिचंद भई सो भई अब प्रान चले चहैं याते सुनावै ।