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पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/३७

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हरिऔध ]
[ रस-साहित्य-समीक्षाएँ
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( जिसका कार्य वस्तुतः विषय में प्रवेश कराना और उसके सम्बन्ध की अन्य आवश्यक बातों का यथेष्ट निरूप या स्पष्टीकरमण करते हुए समुचित परिचय देना है,) इन सब बातों का बड़ा ही मर्मिक और पांडित्यपूर्ण विवेचन किया है और इस न्यूनता की परमोपयोगी तथा परमावश्यक पूर्ति कर दी है। भूमिका के इस अंश से उपाध्याय जी के प्रगाढ़ पांडित्य, विस्तृताध्ययन तथा पूर्ण ज्ञान का स्पष्ट रूप से पता चलता है।"

अन्य भूमिकाओं में भी उनके पांडित्य का महत्तम रूप दृष्टिगत हुआ है। उन्होंने जो भी समीक्षाएँ लिखी हैं वे रसवादी दृष्टिकोण की हैं। वे रस की उत्पत्ति तब मानते थे जब स्थायी भाव व्यक्त होकर विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के साथ सर्वथा, तल्लीन हो जाये। साथ ही वे संतुलित तटस्थता को भी महत्व देते हैं तथा रस का मूल उद्देश्य वे आनन्द मानते हैं। रस परिणति की अन्तिम सीमा वे ब्रह्मानन्द सहोदर बताते हैं। वे भी रस को ही काव्य की आत्मा मानते थे। ब्रह्म सहोदर आनन्द से उनका अर्थ था अभिव्यक्ति के चैतन्य जन्य चमत्कार से सहज आनन्द की प्राप्ति।

इसी कसौटी पर उन्होंने समस्त आलोचनाएँ लिखी हैं। वे समाज और युग मंगल को भी महत्तम स्थान देने वाले समीक्षक थे।

हरिऔध जी कवि के रूप में तो अमर हैं। उनका आलोचक रूप भी अपनी ऐतिहासिक महत्ता निश्चित रूप से रखता है। अतएव आलोचना के क्षेत्र में उनकी देनों को संकलित करने का प्रयत्न मैंने इस कृति में धर्म के रूप में किया है। आशा है हिन्दी जगत इसका स्वागत करेगा।

केशवदेव उपाध्याय
सदाबरती, आजमगढ़।