पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/४४

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साहित्य ]
[ 'हरिऔध'
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उतर रही है और उस पर लोकोत्तर कान्तिवती जातीय रागरंजिता कविता देवी सादर समासीन हो रही है। ललित-लीला-निकेतन वृन्दावन धाम अब भी विमुग्धकर है, किन्तु सुजला, सुफला, शस्यश्यामला भारत वसुन्धरा आज दिन अधिक आदरवती है। तरल तरंगमयी तरणितनया उत्फुल्लकरी है, किन्तु प्रवहमान देश-प्रेम पावन प्रवाह समान सर्वप्रिय नहीं। भगवान् मुरली मनोहर की मधुमयी मुरलिका आज भी मोहती है, मोहती रहेगी, किन्तु अब हम उसके माधुर्य में देश-प्रेम की पुटध्वनि में जातीयता की धुन और सुरीलेपन में सजीव स्वर लहरी होने के कामुक हैं। प्रेम-प्रतिमा राधिका देवी की आराधना आज भी होती है, किन्तु पुष्पांजलि अर्पण कर बद्धांजलि हो अब यही प्रार्थना की जाती है--माता तू जिसकी हृदयेश्वरी है, उससे गम्भीर भाव से कह दे--भारत भूतल फिर भाराकान्त है।*








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