हिन्दी भाषा का उद्गम ]| ६३|[ 'हरिऔध' मानता है। यदि इस भाषा का अर्थ वैदिक भाषा के अतिरिक्त सर्व- साधारण में प्रचलित भाषा है, तो यह सिद्धान्त बहुत कुछ माननीय है। क्योंकि महर्षि पाणिनि के प्रसिद्ध सूत्रों में वेद अथवा उसमें प्रयुक्त भाषा, छन्द, मंत्र, निगम, अादि नामों से अभिहित है, यथा-विभाषा छन्दसि (१, २, ३६), अयस्मयादीनि छन्दसि ( १, ४, २०), नित्यं मन्त्रे (६, १, १०), जनिता मन्त्रे (६, ४, ५३ ), वावपूर्वस्य निगमे (६, ४, ६,) ससू वेति निगमे था-विभाषा भाषायाम् (६, १, १८१), स्थेच भाषायाम् (६, ३, २०), प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम् ( ७, २, ८८), पूर्वतु भाषायाम् (८, २,६८)। परन्तु वास्तव बात यह नहीं है, वरन् वास्तव बात यह है कि मागधी को मूल भाषा अथवा प्रादि भाषा कहकर वेद-भाषा पर प्रधानता दी गयी है। क्योंकि वह अपरिवर्तनीय मानी गयी है, और कहा गया है कि नरलोक के अतिरिक्त उसकी व्यापकता देवलोक तक है, प्रेतलोक और पशु-जाति में भी वह सर्वत्र प्रचलित है। जिस काल में स्वयं वेदों की अप्रधानता हो गयी थी, उस काल में वेदभाषा का अप्राधान्य माना जाना स्वाभाविक है । धार्मिक संस्कार सभी धर्मवालों के कुछ न कुछ इसी प्रकार के होते हैं । ऐसे स्थलों पर वितण्डावाद व्यर्थ है, केवल देखना यह है कि भाषा-विज्ञान की दृष्टि से यह विचार कहाँ तक युक्ति-संगत है और पुरातत्ववेत्ता क्या कहते हैं । वैदिक भाषा की प्राचीनता, व्यापकता और उसके मूल भाषा अथवा आदि भाषा होने के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों संस्कृतं प्राकृतं चैवापभ्रंशोय पिशाचिकी । मागधी शौरसेनी च षड्भाषाश्च प्रकीर्तिताः ॥ प्रा० लक्षण टो०
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