पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/७४

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[ 'हरिऔध'
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अथवा कविकृति की भाषा नहीं हो सकती। मेरा विचार है कि पवित्र वेदों की भाषा बिल्कुल सामायिक बोलचाल की भाषा है। उसकी सरलता, सादगी, स्वाभाविकता, उसके छन्दों की गति यह बतलाती है कि वह कृत्रिम भाषा नहीं है। जिस समय किसी लिपि का प्रचार तक नहीं हुआ था, ब्राह्मी लिपि ब्रह्मदेव के विचार-गर्भ में थी, लेखनी विधि की ललाटलेखा भी न लिख सकी थी, और पुस्तक भगवती वीणा-पुस्तक-धारिणी के पद्मपाणि में भी सुशोभित नहीं थी, उस समय श्रुति, श्रवण-परम्परा द्वारा भारतीय आर्य जाति का हृदय सर्वस्व थी। जो श्रुति स्वाभाविकता की मूर्ति है, उसमें अस्वाभाविकता की कल्पना भी नहीं हो सकी। श्रुति ही वेद भाषा स्वरूपा है। यही वेद-भाषा स्थिति, प्रगति और देश-कालस्वरूपा है। यही वेद-भाषा स्थिति, प्रगति और देश-काल के प्रभाव से परिवर्तित होकर उच्चारणभिन्नता और अनेक नवीन शब्दों के संसर्ग से आर्ष प्राकृत में परिणत हुई। आर्ष प्राकृत का पूर्ण विकास होने पर वेदभाषा उस अवस्था को प्राप्त हुई जो कि नियति का नियम है। अब वह सर्वसाधारण की भाषा न थी, अतएव विद्वद्वंद का हृदय-तल अथवा उनका मुख-प्रदेश ही उसका निवासस्थल था। ब्राह्मी लिपि का उद्भावन होने पर यथासमय उसको पुस्तक का स्वरूप भी मिला।

जिस समय वेद-भाषा आर्ष प्राकृत का रूप धारण कर रही थी, उसी समय कुछ संस्कार-प्रिय विद्वज्जनों ने उसे संस्कृत किया, और इस प्रकार संस्कृत भाषा की उत्पत्ति हुई। ज्ञात होता है, वेदांग शिक्षा के इस अर्द्धश्लोक का 'प्राकृते संस्कृते चैव स्वयं प्रोक्ता स्वयम्भुवा' यही मर्म है। संस्कृत यद्यपि विद्वद्वन्द में ही प्रचलित रही है, यद्यपि वह उन्हीं के परस्पर सम्भाषण और धार्मिक कार्य-कलाप की सम्बल मानी गयी है, किन्तु उसका भण्डार अलौकिक और अद्भुत है। वह नन्दन कानन-समान कान्ति निकेतन और चारु चिंतामणि सदृश अनन्त लोकोत्तर चिन्ताओं का आगार है। वह कल्पना कल्पतरु, कमनीयता कामधेनु, भाव का सुमेरु, माधुर्य