पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/८५

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हिन्दी भाषा का विकास ] ८६ [ 'हरिऔध' कुछ मर्म-भरी उक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी की भी पढ़िये। यह शख्स अजब दर्द-भरा दिल साथ लाया था। मिलहिं जो बिछुरे साजना करि-करि भेंट कहत । तपन मृगसिरा जे सहहिं ते अदरा पलुहंत ।। पिय सों कहेहु संदेसरा ए भौरा ए काग । सो धन विरहिन जरि गई तेहिक धुआँ मोहिं लाग ।। राती पिय के नेह को स्वर्ग भयो रतनार । जोरे उवा अथवा रहा न कोइ संसार ॥ गोस्वामीजी की रत्न-राजि में से कौन रत्न उपस्थित करूँ । वे सभी उज्ज्वल हैं, रामचरितमानस-सरोज-मकरंद का मधुप कौन नहीं है ? उसका रंग निराला, ढंग निराला, बात निराली, सब निराला ही निराला तो है । हाँ, उनका रंग बड़ा चोखा है। अच्छा इसी की रंगत देखिये:- एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास । स्वाति सलिल रघुनाथ यश चातक तुलसीदास ॥ तुलसी संत सुअम्ब तरु फूलि फलहिं पर हेत । इत ते ए पाहन हर्नै उत ते वे फल देत ।। गोधन गज धन बाजि धन और रतन धन खान । जब आवत संतोष मन सब धन धूरि समान ! असन बसन सुत नारि सुख पापिहुँ के घर होय । संत समागम रामधन तुलसी दुरलभ दोय । महाकवि केशव का महत्व अकथनीय है । आपके कुल के सेवक भी भाषा नहीं बोलते थे । अपको भाषा में कविता करना अरुचिकर था; किन्तु जब इधर रुचि हुई, तो कमाल कर दिया। एक पद्य उनका भी देख लीजिये, आपकी मानमर्यादा बनी रहे:-