पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/८७

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हिन्दी भाषा का विकास ] ८८ [ 'हरिऔध' बिहारीलाल की ललामता अवलोकन कीजिये- यद्यपि सुन्दर सुघर पुनि सगुनो दीपक देह । तऊ प्रकास करै तितौ भरिए जितो सनेह ।। जो चाहत चटक न घटै मैलो होय न मित्त । रज राजस न छुवाइये नेह चीकने चित्त ।। दृग अरुझत टूटत कुटुम जुरत चतुर चित प्रीति । परति गाँठ दुरजन हिये दई नई यह रीति ।। हिन्दी के इस स्वर्ण-युग में और भी अनेक साहित्य-कानन-केशरी उत्पन्न हुए हैं। वे सब अपने ढंग के निराले हैं। इस स्वर्णयुग के उपरान्त भी बड़े ही कवि-कर्म-कुशल काव्य-कर्ताओं के दर्शन होते है। उन लोगों ने भी मोती पिरोये हैं, बड़े अनूठे बेल-बूटे तराशे हैं, भगवती भारती के कण्ठ में बहुमू ल्म रत्न हार डाले हैं, हिन्दीदेवी को भाव के -समुच्च अासन पर आसीन किया है, उसे सम्मुन्नत बनाया है और उन न्यूनताओं की पूर्ति की है, जो उनकी कीर्ति के आवश्यक साधन हैं । परन्तु, स्वर्णयुग का आदर्श ही उनका आदर्शभूत है । अतएव उनके विषय में कुछ विशेष लिखकर मैं इस लेख की कलेवर-वृद्धि नहीं करना चाहता। हाँ, इन लोगों में एक देवदत्त बलबलीयान देवदत्त नामक कविकुल-कमल पर दृष्टि विना पड़े नहीं रहती। यह देव वास्तव में स्वर्गीय सम्पत्ति-सम्पन्न हैं । उनकी दीप्ति के सम्मुख कविता-देवी भी चमत्कृत होती हैं; अतएव उनका चमत्कार भी देखिये- जब ते कुँवर कान्ह रावरी कला निधान कान परी वाके कहूँ सुजस कहानी सी । तब ही ते 'देव' देखी देवता सी हँसति सी, रीति सी खीझति सी रूठति रिसानी सी ॥