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रहीम- कवितावली।
बनिआइन बनि आइ कै,बैठि रूप की हाट ।
प्रेम पैक तन हेरि कै,गरुवे तारत बाट ॥
गरब तराजू करत चख,भौंह मोरि मुसक्यात ।
डाँडी मारत बिरह की,चित-चिंता घटि जात ॥
भाँटा बरन सु काजरी,बेचै सोवा साग ।
निलज भई खेलत सदा,गारी दै-दै फाग ॥
हरी-भरी डलिया निरखि,जो कोई नियरात ।
झूठे हू गारी सुनत,साँचे हू ललचात ॥
करै न काहू की सका,सक्किनि जोबन रूप ।
सदा सरम जल ते भरी,रहै चिबुक के कूप ॥
सजल नैन वाके निरखि,चलत प्रेम-सर फूट ।
लोक-लाज उर धाक ते,जात मसक-सी छूट ॥
धुनिआइन धुनि रैनि-दिन,धरै सुरति की भाँत ।
वाको राग न बूरही,कहा बजावै ताँत ॥
काम पराक्रम जब करै,छुवत नरम हैजाय ।
रोम-रोम पिय के बदन,रूई-सी लिपटाय ॥
निसि-दिन रहै ठठेरनी, राजे माँजे गात ।
मुकता वाके रूप को, थारी पै ठहरात ॥
आभूषण बसतर पहिरि, चितवत पिय-मुख-ओर ।
मानो गढ़े नितंब कुच, गड़ुवा डार कठोर ॥
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