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पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/१०८

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खानखाना-कृत बरवै ।

बन्दहु विघन-विनासन,ऋधि-सिधि-ईस ।

निर्मल बुद्धि-प्रकासन,सिसु ससि-सीस ॥

सुमिरहु मन दृढ़ करिकै,नन्दकुमार ।

जो बृषभानु कुमारिके,प्रान-अधार ॥

भजहुँ चराचर-नायक,सूरज देव ।

दीन जनन-सुखदायक,त्यारन एव ॥

ध्यावहु सोच-विमोचन,गिरिजा-ईस ।

नागर भरन त्रिलोचन,सुरसरि सीस ॥

ध्यावहुँ विपति-विदारन,सुवन-समीर ।

खल-दानव-बन-जारन,प्रिय रघुवीर ॥

पुनि-पुनि बन्दहुँ गुरु के,पद जलजात ।

जेहि प्रसाद ते मन के,तिमिर नसात ॥

उलहे नये अँकुरवा,बिन बलवीर ।

मानहु मदन महिप के,बिन पर तीर ॥

वेद पुरान बखानत,अधम उधार ।

केहि कारन करुनानिधि,करत विचार ॥

लखि पावस ऋतु सजनी,पिय परदेस ।

गहन लग्यो अबलन पै,धनुष सुरेस ॥

बिरह बढ्यो साखि अंगन,बढ्यो चबाउ ।

कर्यो निठुर नँदनंदन,कौन कुदाँउ ॥