पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/१०९

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रहीम-कवितावली।

हौं लाखे हौं री सजनी,चौथि मयंक ।

देखौं केहि विधि हरिसे,लगै कलंक ॥

कहा छलत हौ ऊधो,दै परतीति ।

सपने हू नहिं बिसरे,मोहन मीत ॥

घेरि रह्यो दिन-रतिया,बिरह बलाय ।

मोहन की वह बतियाँ,ऊधो हाय ॥

निरमोही अति झूँठो,साँवर गात ।

चुभी रहत चित को धौं,जानि न जात ॥

जब-तब मोहन झूठी,सौहैं खात ।

इन बातन ही प्यारे,चतुरं कहात ॥

जान कहत हो ऊधो,अवधि बताय ।

अवधि अवधि लौं दुस्तर,परत लखाय ॥

गए हेरि हरि सजनी,विहँसि कछूक ।

तबते लगनि आदि की,उठत भबूक ॥

जब ते मोहन बिछुरे,सुधि कछु नाहिं ।

रहे प्रान पर पलकन,दृग मग माँहि ।

उन बिन कौन निबाहै, हित की लाज ।

ऊधो तुमहू कहियो, धनि ब्रजराज ।

रे मन भजि निसि बासर, श्री बलवीर ।

जो बिन जाँचे टारत, जन की पीर ॥

सबै कहत हरि बिछुरे, उर धर धीर ।

बौरी बाँझ न जानैं, ब्यावर पीर ॥