पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/११७

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रहीम-कवितावली।

अहिल्या पाषाणः प्रकृति पशुरासीत् कपिचमू ।

गुहो भूञ्चांडालस्त्रितयमपि नीतं निजपदम् ।

अहं चित्तेनाश्मः पशुरपि तवाचारदी करणे ।

क्रियाभिश्चांडालो रघुवर न मामुद्धरसि किम् ॥३॥

प्रार्थना-मिस रहीम रामचन्द्रजी से निवेदन करते हैं कि अहल्या पत्थर थी; कपि-सेना स्वभाव से ही पशु थी; गुह चांडाल था; इन तीनों को ही आपने उद्धार करके अमर-पद दिया है । रहीम कहते हैं कि यही तीनों बातें मुझ में आगई हैं -- अर्थात् मैं बहुत कठोर हृदय होने से चित्त से तो पत्थर हूँ, आपकी पूजा-अर्चना-विहीन होने से पशु के ही तुल्य हूँ तथा मेरे कर्म इतने निषिद्ध हैं कि मैं सहज ही में चांडाल की पदवी को प्राप्त हो सकता हूँ -- तो फिर आप मेरा उद्धार क्यों नहीं करते?

यद्यात्रया व्यापकता हता ते,

"भिदैकता, वाक्परता च स्तुत्या।

ध्यानेन बुद्धेः परता परेशम्,

जात्या जनान्क्षन्तुमिहार्हसित्वम् ॥ ४॥

हे भगवन्!मैंने आपका बड़ा भारी अपराध किया है। क्योंकि मैंने इधर-उधर घूम-फिरकर आपकी सर्वव्यापकता