को,ध्यान करके बुद्धि से दूर होने को तथा जाति निश्चय करके आपके अजातिपने को नाश कर दिया है । इससे हे भगवन्, मेरे अपराधों को क्षमा करो।
दृष्टवा तत्र विचित्रतां तरुलताम्,मैं था गया बाग में।
काचित्तत्र कुरंगशावनयना,गुल तोड़ती थी खड़ी ॥
उन्मद्भूधनुषा कटाक्षविशिखैः,घायल किया था मुझे।
तत्सीदामि सदैव मोह जलधौ,हे दिल् गुजारो शुकर ॥५॥
वृक्षों और लताओं की विचित्रता की बहार देखने के लिए मैं एक दिन बाटिका में गया था । क्या देखता हूँ कि वहाँ सामने एक मृगनयनी फूल चुन रही है। उसने ज़रा सी आहट में अपने चंचल-भौंह रूपी धनुष के दृष्टि-कोण-रूपी बाण से मुझे ऐसा घायल किया कि मैं उसके मोह-सागर में फँसकर आजतक दुःख पाता हूँ । रहीम इतना होजाने पर भी आपने चित्त को आश्वासन देकर कहते हैं कि उसको धन्यवाद दो कि इतने ही में खैर होगई। नहीं तो,नहीं मालूम,क्या गज़ब होगया होता।
एकस्मिन्दिवसावसानसमये,मैं था गया बाग़ में ।
काचित्तत्र कुरंगबालनयना गुल तोड़ती थी खड़ी।
तां दृष्टवा नवयौवनां शशिमुखीं,मैं मोह में जापड़ा।
नो जीवामि त्वयाविना शृणु प्रिये,तू यार कैसे मिले ॥६॥
रहीम एक दिन सायंकाल के समय घूमते-फिरते