पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/५२

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रहीम-कवितावली। दोहे। श्रमर बेलि बिन मूल की, प्रति-पालत है ताहि ।। रहिमन ऐसे प्रभुहि तजि, खोजत फिरिए काहि ॥१॥ अधम बचन तें को फल्यो, बैठि तार की छाहिं। रहिमन काम न आवहीं, जे नीरस जग माहिं ॥२॥ अनुचित उचित रहीम लघु, करहिं बड़ेन के जोर । ज्यों ससि के संयोग तै, पचवत आणि चकोर ॥३॥ अनुचित बचन न मानिए, यदपि गुराइस गाढ़ि।। है रहीम रघुनाथ तै, सुजस भरत को बाढ़ि ॥४॥ अब रहीम मुसकिल परी, गौढ़े दोऊ काम। साँचे तें तो जग नहीं, झूठे मिलें न राम ॥५॥ अंमी पियावत मान बिन, रहिमन मोहिं न सुहाइ । प्रेम सहित मरिबो भलो, जो बिष देइ बुलाइ ॥ ६॥ ३-१-मेल, २-सह लेता है। ४-१-मीठापन-प्रत्यक्ष हित। ६-१-अमृत।

  • कहीं-कहीं यही दोहा सोरठे के रूप में पाया जाता है।