पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रहीम-कवितावली। अमृत ऐसे बचन में, रहिमन रिस की गाँसे । जैसे मिलिरिहु में मिली, निरस बाँस की फाँस ॥७॥ अरज-गरज मान नहीं, रहिमन ये जन चारि । रिनियाँ राजा माँगता, काम-आतुरी नारि ॥ ८ ॥ असमय परे रहीम कहि, माँगिजात तजि लाज । ज्यों लछिमन माँगन गए, पाराशर के नाज ॥६॥ आए राम रहीम सब, किए मुनिन को भेष । जब जापै विपदा परै, सो जावै परदेश ॥ १० ॥ श्रावत काम रहीम है, गाढ़े बन्धु सनेह । जीरने पेड़हिं के · भए, राखत बरहि बरोह ॥ ११ ।। आप न काहू काम के, डार पात फल मूर। . औरन को रोकत फिरें, रहिमन कूर बबूर ॥ १२ ॥ उरग तुरंग नारी नृपति, नीच जाति हथियार । रहिमन इन्है सँभारिए, पलटते लगै न बार ॥ १३ ॥ ७-१-तीक्ष्णता, गाँसी-एक प्रकार का तीर भी होता है। ८-१-भिक्षुक ।

  • १०-इसी आशय का रहीम का एक और भी दोहा मिलता है।

चित्रकूट मैं बसि रहे, रहिमन अवध नरेस । जोह पर बिपदा परत है, सो श्रावत् यहि देस ॥ देखो दोहा नं. ५ ११-१-विपत्ति में, २-जीर्ण, ३-वट-वृक्ष, ४-लताएँ। १३-१-साँप, -२प्रतिकूल होते हुए। तुलसीदासजी का भी एक ऐसा ही दोहा है:- उरग तुरूंग नारी नृपति, नर नीचो हथियार । तुलसी परखत रहन नित, इनहिं न पलटत बार ॥'