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पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/५४

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दोहे। जगत जाही भाँति सों, अथवते ताही काँति। त्यों रहीम सुख-दुख सबै, बढ़त एक ही भाँति ॥ १४ ॥* श्रोछे काम बड़े · करें, तो न बड़ाई होइ । ज्यों रहीम हनुमन्त को, गिरिधर कहै न कोइ ॥१५॥ अंडन बौड़ रहीम कहि, देखि सचिक्कन पान । हस्ती धक्का कुल्हडिन, सहैं ते तरुवर आन ॥ १६ ॥ अंजन दीन्हे किरकिरी, सुरमा दियो न जाय । जिन आँखिनसों हारेलख्यो, रहिमन बलि-बलि जाय ॥१७॥ कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन । जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन ॥ १८ ॥ कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय । पुरुष पुरातन की बधू, क्यों न चंचला होय ॥ १६ ॥ कमला थिर न रहीम कहि, लखत अधम जे कोय । प्रभु की सो अपनी कहै, क्यों न फजीहत होय ॥ २० ॥ १४-१-उदय होते हैं, २-अस्त होते हैं।

  • इसी श्राशय का इनका एक दोहा और भी है:-

यों रहीम सुख-दुख सहत, बड़े लोग सहि साँति । . उवत चन्द जेहि भांति सों, अथवत वाही भाँति ॥ देखो दोहा नं० १५२ १६-१-रण का वृक्ष । + १८-इनका ऐसा ही एक दूसरा दोहा भी है:- मुकता करै कपूर करि, चातक जीवन जोय । एतो बड़ो रहीम जल, व्याल बदन बिष होय ॥ देखो दोहा नं० १४१ २०-१-बदनामी।