पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/५८

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दोहे। चढ़िवो मैन-तुरंग पर, चलिबो पावक माँहि । प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहि ॥ १८ ॥ चरन छुए मस्तक छुए, तऊ न छाँड़त पानि । हियौ छुवत प्रभु छोड़ि दै, कहु रहीम का जानि ॥ ४६॥ चारा प्यारा जगत में, छाला हित कर ले। ज्यों रहीम पाटा लगै, त्यों मृदंग सुरु देइ ॥ ५० ॥ छमा बड़ेन को चाहिए, छोटेन को उतपात । का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात ॥ ५१ ।। छोटेन सों सोहैं बड़े, कहि रहीम यहि लेख । सहसन को हय बाँधियत, लै दमरी की मेख ॥ ५२ ॥ जब लगि बित्त न आपने, तब लगि मित्त न कोइ । रहिमन अम्बुज अम्बु बिन, रबि ताकर रिपु होइ ॥ ५३॥ जलहिं मिलाइरहीम ज्यों, कियो आपु सम छीर।। अंगवै पापुहिं श्राप त्यों, सकल आँच की भार ॥५४॥ जहाँ गाँठि तह रस नहीं, यह जानत सब कोइ। मड़ए-तर की गाँठि मैं, गाँठि-गाँठि रस होइ ॥ ५५ ॥ जानि अनीतिहिं जो करै, जागत ही रह सोह। . ताहि जगाइ बुझाइबो, रहिमन उचित न होह ॥५६॥ * . ५०-१-चर्म-खाल। ५२-१-हज़ारों। ५३-१-जलज, २-जल ।

  • ५६-तुलसीदासजी का भी एक ऐसा ही दोहा है:-

समुझि सुरीति कुरीति रत, जागत ही रह सोइ । उपदेसिबो जगाइबो, तुलसी उचित न होह ॥