पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/७०

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दोहे
19।

ये रहीम दर-दर फिरैं, माँगि मधुकरी खाहिं ।
यारौ यारी छोड़ि दो, अब रहीम वे नाहिं ॥ १६ ॥
यों रहीम सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत ।
ज्यों बड़री अखियाँ निरखि, आँखिन को सुख होत ॥ १५०॥

यों रहीम गति बड़ेन की, ज्यों तुरंग व्यवहार ।
दाग दिवावत आपु तन, सही होत असवार ॥ १५१ ।।
यों रहीम दुख-सुख सहत, बड़े लोग सहि साँति ।।
उक्त चन्द्र जेहिं भाँतिसों, अथवत वाही भाँति ॥१५२॥ *

यों रहीम सुख होत है, उपकारी के अंग ।
बाँटनवारे के लगै, ज्यों मेंहदी को रंग ॥ १५३ ॥
यो रहीम जग मारिबो, नैन-बान की चोट ।
भगत-भगत कोई बचे, चरन कमल की ओट ॥ १५४ ।।

रहिमन आँटा के लगे, बाजत है दिन राति ।
घिउ सक्कर जे खात नित, तिनकी कहा बिसाति ॥ १५५ ॥
रहिमन कठिन चितान ते, चिन्ता को चित चेत।
चिता दहति निर्जीव को, चिन्ता जीव समेत ॥ १५६ ॥


१४9-१-भौरिया, छोटी तथा मोटी रोटी । १५१-१-चोट।

  • १५२--देखो दोहा नं. १४ ।

+ १५६–संस्कृत का एक श्लोक इसी आशय का है। चिता चिंता द्वयोर्मध्ये, चिन्तका हि गरीयसी । चिता दहति निर्जीवं, चिन्ता दहति सजीवकम् ॥ भर्तृहरि