पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/७१

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रहीम-कवितावली। रहिमन छोटे नरन सों, होत बड़ो नहिं काम । मढ़ो दमामो नहिं बने, सौ चूहे के चाम ॥ १५७ । रहिमन जा उर निसि परै, ता दिन डर सब कोय । पल-पल करिकै लागतो, देखु कहाँ धौ होय ॥ १५८ । रहिमन विद्या बुद्धि नहि, नहीं धरम जस दान । भूपर जनम वृथा धरै, पसु बिन पुच्छ बिधान ॥१५॥ रहिमन राज सराहिए, सास-सम सुखद जो होइ। . कहा बापुरो भानु है, तप्यो तरैथन खोइ ॥ १६० रहिमन भाखत पेट सों, क्यों न भयो तू पीठि । भूखे मान डिगावही, भरे बिगारत दोठि'। १६१ सहेमन सूची चाल सो, प्यादा होत वजोर। करजी मीर न होइ सके, टेढ़े की तासीर ॥ १६२ रहिमन राम न उर धरै, रहत बिषय लपटाइ । पशु खर खात सवाद सों, गुरु गलियाए खाइ ॥ १६३ राहमन रिस ते तजत नहिं, बड़े प्रीति की पौरि । भूकन मारत आवई, नींद बिचारी - दौरि ॥ १६४ १५६-१-सींग ।

  • संस्कृत का एक ऐसा ही श्लोक है।

येषां न विद्या न धनं न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्मः। ते मृत्युलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥ १६०-१-तर । १६१-१-निगाह, दृष्टि । १६४-~-१- ज्योड़ी।