पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/७६

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२५ .. दोहे। रहिमन धरिया रहँट की, त्यों ओछे की डीठि । रोती सनमुख होति है, भरी दिखावै पीठि ॥ २०० ।। रहिमन पैंडा प्रेम को, जस कूकुर को नार । डारत मैं सुख होत है, निकसत दुःख अपार ॥ २०१॥ रहिमन श्रोछे नरन ते, तजौ बैर औ प्रीति । चाटे काटे स्वान के, दूहँ भाँति. विपरीति ॥ २०२ ॥ रहिमन बिगरी आदि की, बनै न खरचे दाम । हरि बाढ़े आकास लौ, तऊ बावनै नाम ॥ २०३ ॥ रहिमन कोऊ का करै, ज्वारी चोर लबार। जो पति-राखन-हार है, माखन-चाखन-हार ॥ २०४ ॥ रहिमन जग जीवन बड़ो, काह न देखे नैन । जाय दसानन अछत ही, कपि लागे गढ़ लैन ॥ २०५॥ रहिमन थोरे दिनन को, कौन करै मुख स्याह। नहीं छलन को पर तिया, नहीं करन को ब्याह ॥ २०६ रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभु की धाक । दाँत दिखावत दीन द्वै, चलत घिसावत नाक ॥ २०७॥ रहिमन बहु भेषज करत, व्याधि न छाँड़त साथ । खग मृग बसत अरोग बन, हरि अनाथ के नाथ ॥ २० ॥ रहिमन उजरी प्रकृति को, नहीं नीच को संग । करिया बासन कर गहे, करिखा लागत अंग ॥ २०६॥ २००-१-खाली।