पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/७७

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२६ रहीम-कवितावली । रहिमन जाके बाप को, पानि न पीवै कोइ। ताकी गैल अकास मैं, क्यों न कालिमा होइ ॥२१०॥* रहिमन है संकरी गली, दूजो ना ठहराहि। श्रापु अहै तौ हरि नहीं, हरि तौ अपनी नाहिं ॥२११ ॥ रहिमन ब्याह बियोधि है, सकहु तो जाहु बचाइ । पाँयन बेरी परत है, ढोल बजाइ-बजाइ ॥ २१२॥ रहिमन तब तक ठहरिए, दान मान सनमान । घटत मान जब देखिए, तुरतहि करिय पयान ॥२१३॥ रहिमन सो न कछ गनै, जासों लागें नैन। . सहिकै सोच बिसाहिए, गयो हाथ को चैन ॥ २१४॥ रहिमन प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन । ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फाँक तीन ॥ २१५ ॥

  • २१०-चन्द्रमा के प्रति रहीम की यह उक्ति है।

कहते हैं कि इसका पिता समुद्र है, जिसका छुपा पानी तक कोई नहीं पीता और वह धरातल में ही अपना घर बनाकर रहता है। परन्तु इसका लड़का चन्द्रमा अपनी मर्यादा उल्लंघन करके अपना मार्ग आकाश में बनाता है । तो फिर कलंकित क्यों न हो। + २११-कबीरदासजी की भी ऐसी ही एक उक्ति है। जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं । प्रेम-गली अति साँकरी, तामें दो न समाहिं ॥ २१२-१-व्याधि-आपत्ति । + २१३ देखो दोहा नं० १८००