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पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/८०

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दोहे। . .२६ रूप रहीम बिलोकि तेहि, मन जहँ-जहँ लगि जाय । थाके ताकहिं आप बहु, लेत छुड़ाय छुड़ाय ॥ २३२ ॥ लिखी रहीम लिलार में भई श्रान की आन । पद कर काटि बनारसी, पहुँचयो मगहर थान ॥ २३३ ॥* वहै प्रीति नहिं रीति वह नहीं पाछिलो हेत । घटत-घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत ॥ २३४ ॥ सदा नगारा कूच का, बाजत आठौ जाम । रहिमन या जग प्राइकै, का करि रहा मुकाम ॥ २३५ ॥ सब कोऊ सबसों करें, राम जुहार सलाम । हित अनहित तब जानिए, जादिन अटकै काम ॥ २३६ ॥ सन्तत सम्पति जानिक, सब को सब कोइ देइ । दीनबन्धु बिन दीन की, को रहीम सुधि लेइ ॥ २३७ ॥ समय लाभ सम लाभ नहि, समय चूक सम चूक । चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक ॥ २३८ ॥ समय दसा कुल देखिकै, सबै करत सनमान । रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान ॥ २३६ ॥

  • २३३-कबीरदासजी के जीवन का अधिकांश काशी में ही व्यतीत

हुआ था, लेकिन अन्त समय में मरने के समय-वे मगहर चले गए थे । इसी पर रहीम जीने यह कहा है कि जो अपनी प्रारब्धि में होता है वह होकर ही रहता है । काशी ऐसी मोक्ष-दायिनी जगह में अतिकाल तक रह कर भी कबीर को अपने प्राण मगहर जाकर छोड़ने पड़े। २३४-१बालू ।