पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/७९

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२८ रहीम-कवितावली। रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गइ सरग-पताल । पापु तौ कहि भीतर भई, जूती खात कपाल । २२३ ।। रहिमन पर उपकार के, करत न पारै बीच । मास दियो शिबि भूप ने, दीन्हो हाड़ दधीच ॥ २२४ ॥ रहिमन भेषज के किर, काल जीति जो जात। . बड़े-बड़े समरथ भए, तौ न कोऊ मारजात ॥ २२५ ॥ रन बन ब्याधि विपत्ति में, रहिमन मरै न रोइ । जो रच्छक जननी-जठर, सो हरि गए कि सोइ ॥२२६॥ राम न जाते हरिन सँग, सीय न रावन साथ । जो रहीम भावी कतहुँ, होति आपने हाथ ॥ २२७ ॥ राम-नाम जान्यो नहीं, भइ पूजा मैं हानि । कहि रहीम क्यों राखि हैं, यम के किंकर कानि ॥ २२८ ॥ राम-नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपादि। कहि रहीम तेहि आपनो, जनम गवाँयो बादि ॥ २२६ ॥ रीति-प्रीति सब सो भली, बैर न हित मित गोत । रहिमन याही जनम की, बहुरि न संगति होत ॥ २३० ॥ रूप कथा पदं चारु पट, कंचन दोहा लाल । ज्यों-ज्यों निरखत अलपत्यों, मोल रहीम बिसाल ॥ २३१ ॥ २२३-१-बुरा-भला । २२६-१-माता के पेट में। २२६-१-बुराई करना। २३१-१-महात्माओं के उपदेश, २-अल्प-छोटे ।