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सोरठे। ३३ बिन्दु में सिन्धु समान, को कासों अचरज कहै । हेरनहार हिरान, रहिमन आपुहि पापु मैं ॥ ७ ॥ रहिमन नीर पखांन, बूड़े पै सीजै नहीं।। तैसे मूरुख .. ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं ॥ ८॥ रहिमन कीन्ही प्रीत, साहब को भाव नहीं । जिनके अनंगन मीत, हमैं गरीबन को गनै ॥ ६॥ रहिमन पुतरी स्याम, मनौ जलज मधुकर लसै । कै धौं सालिकराम, रूपे के अरघा घरे ॥१०॥ रहिमन जग की रीति, में देखा रस ऊख में । ताहू मैं परतीति, जहाँ गाँठि तहँ रस नहीं ॥११॥
- ७-कहीं-कहीं यही सोरठा अहमद की कविता में भी पाया जाता
है। केवल 'रहीम' के नाम की जगह पर 'अहमद' का नाम है । ८-१-पत्थर, २-जानता है, ३-समझता नहीं है। -१-असंख्य ।