पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/८३

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सोरठे। इक नाही इक पीर, हिय रहीम होती रहै। कबहुँ न भई सरीर, प्रीति बेदना एक-ली ॥१॥ प्रोछे को सतसंग, रहिमन तजहु अँगार ज्यों। तातो जारै अंग, सीरे पै कारो करै ॥२॥ गई आगि उर लाय, आगि लैन आई जु तिय ।। लागी नाहि बुझाय, भभकि-भभाके बरि-बरिउठै॥३॥* चूल्हा दीन्हो बारि, नातो रह्यो सो जरि गयो । राहेमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में ॥४॥ दीपक हिए छिपाइ, नवल बधू घर लै चली। कर बिहीन पछिताइ, कुच लखि निज सीसै धुनै॥५॥ पलटि चली मुसकाइ, युति रहीम उपजाइ अति । बाती रत उसकाइ, मानौ दीन्ही दीप की॥६॥ २-१-ठंडा होजाने पर। ३-कविवर मतिराम के एक दोहे में ऐसाही भाव है:- नैन जोरि मुख मोरि हँसि, नैसुक नेह जनाइ । आगि लेन आई जु तिय, मेरे गई लगाइ ॥ नोट- मोरठा नं० ३, ५ और ६ रहीम-कृत एक दूसरी 'पुस्तक' शृंगार सारठा के कहे जाते हैं।