पृष्ठ:राजविलास.djvu/११

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राजबिनाम । अभियन्नहारनी । अद्भुत अनूपं मराल भासनि जयति जय जगतारनी ॥ १७ ॥ भुज दंड लंब बिशाल श्रीभर कनक भूरि सुकं- कनां । पाँचीय गजरा बहिरषा प्रिय बाहुबंध सुब- धना ॥ महिंदीय रंगहिं पानि मंडित बेलि सोभव धारनी । अद्धत अनप मराल पासनि जयति जय 'जगतारनी ॥ १८ ॥ करसाष कमनिय रूप कोमल मुद्रिका बर मंडनं । उपमान मूंगफली सु उत्तम अरुन नपर अषंडनं ॥ पुस्तकरू वीन सुपानि पल्लव बेदराग बिथारनी । अद्भत अनूप मराल आसनि जयति जय जगतारनी ॥ १८ ॥ कहिये निगोदर हार कंठहि मुत्ति माल मनो- हरं । मषतल गुन चौकी कनक मनि चारु चंपकली उरं ॥ तपनीय हरुरुपोति तिलरी कंठश्री सुख कारनी। अद्भुत अनप मराल आसनि जयति जय जगतारनी ॥२०॥ बिधु सकल कल संजुत्त बदनी चिबुक गाड़ सु- चाहियै । बिद्र म कि ब धूजीव वर्णो सहज अधर सराहिये ॥ दुति दरुन बीज सुपक्व दारिम भेष जन मन हारनी। अद्भुत अनूप मराल प्रासनि जयति जय जगतारनी ॥ २१ ॥