सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:राजविलास.djvu/१२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११३
राजबिलासा।

॥कवित्त॥

दम्पति उभय संबंध कन्त कर ग्रहन किय, सुर पति सची समान सकल गुन रूप श्रिय। कै रति युत रति कन्त एह उनमानिये। निश्चल हुन जन नेह युगं युग जानिये॥७४॥

॥दोहा॥

युग युग नेह सु उभय जन, सुरपति सची समान।
रूप पुत्ति वर रटवरि, राजसिंह महाराण॥७५॥

॥चन्द्रायन॥

राजसिंह महारान संपते चौरि सजि।
बज्जे बज्जन वृन्द गगन प्रति सद्दि गजि॥
गावति सहब गीत कित्ति कल कंठ करि।
सज्जन मिले समूह कोटि उत्साह करि॥७६॥

॥दोहा॥

सज्जन आइ मिले सकल, मान कमध्धज गेह।
चोरी मण्डप चूप चित, नरनायक बहु नेह॥७७॥
बरताए मंगल सकल, लिए सु फेरा लछि।
होंस मनाई हीय की, अच्छि सम्पतिय अछि॥७८॥
सन्तोष नेगी सकल, दये घने धन दान।
चोकी कमधज्जी चढे, राजसिंह महाराण॥७९॥

॥कवित्त॥

राजसिंह महाराण प्रिया रठौर सुपरनिय।

१५