पृष्ठ:राजविलास.djvu/११९

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११२ राजविलास। कटि सुन्दर करबाल हंस हय चढ़े थट्ट इभ ॥ बहु भूप सेन 'बिचि बीर बर हय गय मय गय ताम हुअ । धन त्रम्बक बर नौवति घुरहि जोतिह लाल अपार हुआ ॥ ६ ॥ ॥ दोहा ॥ बहु सेना बिचि बीर बर, अश्व हंस आरोह । शीश छत्र वर सेहरो, चामर ढलत सु सोह ॥ ६ ॥ ॥ चन्द्रायन ॥ चामर ढलत सु सोह उबारत द्रव्य अति । बन्दी बोलत बिरुद चिरं चीतोरपति ॥ पिखत प्रजा असंखन बुझहिं अप्प पर । रङ्ग मण्डप रस रङ्ग प्रपत्त ईश वर ॥ ७० ॥ ॥दोहा॥ रंग मण्डप बहु रङ्ग रस, प्रवर दुलीच बिछाय । रूप सुता रस रङ्ग मैं, सकल सखी समुदाय ॥ ७१ ॥ ॥ चन्द्रायन ॥ सकल सखी समुदाय सुहाइय सुन्दरिय । मण्डप मध्य सु आइय अभिनव अच्छरिय ॥ बिप्र पढ़त बहु बेद हवन करि करि हवी । सूर चन्द सुर साखिय सज्जन संठवी ॥ ७२ ॥ ॥दोहा॥ सूर चन्द सुर साखि सब, बर गँठ जोरा बन्धि । बन्धी मनु हित गंठि दृढ़, दम्पति उभय सम्बन्धि॥७३॥