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पृष्ठ:राजविलास.djvu/११९

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राजविलास।

कटि सुन्दर करबाल हंस हय चढ़े थट्ट इभ॥
बहु भूप सेन 'बिचि बीर बर हय गय मय गय
ताम हुअ। धन त्रम्बक बर नौवति घुरहि जोतिह
लाल अपार हुआ॥६८॥

॥दोहा॥

बहु सेना बिचि बीर बर, अश्व हंस आरोह।
शीश छत्र वर सेहरो, चामर ढलत सु सोह॥६९॥

॥चन्द्रायन॥

चामर ढलत सु सोह उबारत द्रव्य अति।
बन्दी बोलत बिरुद चिरं चीतोरपति॥
पिखत प्रजा असंखन बुझहिं अप्प पर।
रङ्ग मण्डप रस रङ्ग प्रपत्ते ईश वर॥७०॥

॥दोहा॥

रँग मण्डप बहु रङ्ग रस, प्रवर दुलीच बिछाय।
रूप सुता रस रङ्ग मैं, सकल सखी समुदाय॥७१॥

॥चन्द्रायन॥

सकल सखी समुदाय सुहाइय सुन्दरिय।
मण्डप मध्य सु आइय अभिनव अच्छरिय॥
बिप्र पढ़त बहु बेद हवन करि करि हवी।
सूर चन्द सुर साखिय सज्जन संठवी॥७२॥

॥दोहा॥

सूर चन्द सुर साखि सब, बर गँठ जोरा बन्धि।
बन्धी मनु हित गंठि दृढ़, दम्पति उभय सम्बन्धि॥७३॥