पृष्ठ:राजविलास.djvu/१४०

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राजविलास। अतर जैवादि अबीर चारु चावा फुलेल. बरे कुसुम माल तिन कंठ सुरभि पसरत साडंबर ॥ अम्बर तुरंग तरुवर सधर उड़त सु लाल गुलाल अति । बढ़ि रङ्ग बिलास प्रहास मनु संध्या राग समान थिति ॥ ६ ॥ ॥दोहा॥ बंटिय मोहन भाग बर' मेवा घन मिष्ठान । चरनेादक तुलसी सु दल, सकल लेत सनमान ॥८॥ स्वर्ण कुम्भ भरि स्वर्ण धन, रजत कुम्भ भरि रूप ॥ करि कृष्णापण हरि सुकजि, भरि भंडार सु भूप ८८ मौतिक स्वस्तिक लाल मधि, लीलक पट अभिराम घंट कनक धज दंड सों, धज बन्धी हरिधाम ॥८॥ बैठे सायुध सुत सहित. रूप तुला महारान । जलधर ज्यों जग याचकनि, देत सु बंछित दान ८० इहिं पर सेव अनन्त की, प्रभु करि बिविध प्रकार होस मनाई हीय की, सफल करयौ अवतार ॥१॥ निज डेरा भार नृपति सकल सेन धन संग । दिशि दिशि प्रति महाराण दल मनौं महोदधिगंगर भल भल भोजन भगति भल पंचामृत रस पोष । पोषे निज प्रति भट प्रभृति, सुनत होत संतोष॥३॥ ॥ कैबित्त ॥ घेवर मुत्तिरचूर पंड चनका रु पतासा।