पृष्ठ:राजविलास.djvu/१४१

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१९३४ राजविलास । गिन्दोरा दहिबरा दोवठा षाजा पासा ॥ पैरा खुरमा प्रगट खेलना गुझा पसषस । कलाकन्द कन्सार सरस सीरै सुनिये रस ॥ गुलगुला सकरपारा सबल देखि दमी दादर भसत इन्द्रसा पान भोला प्रमुख पुरुष नाउं पंडित पढ़लर्ट: सु जलेबी हेसमी अकबरी और अमृती। पुरी तिनँगिनी सोंठि मठी साबुनी निषती ॥ फेनी फुनि रेवरी स्वाद घन खण्ड संठेली। मुरको बरफी पीलसार, घनसार संमेली ॥ कलियान साहि कवि मान कहि सकूर चौकी क्षीर युत । मिष्ठान बिबिध पाषे सुभट जैवत जो जिहि चित्त रुचत ॥५॥ सत्त अहो निसि एक सज, प्रतिदिन चढ़त प्रमोद । सेवा चढ़ती माइकी, बरते सघन विनोद ॥ ६ ॥ करि सुजात हरि भगति करि, करि निज बंछतिकाज उदयापुर का ऊमहे, राजराण ध्र व राज ॥ ७ ॥ घुरि निसानि सु विहांन घन, अनि पलाय गन तुग । सजि सिंधुर मदझर सबर, ताते तरल तुरंग ॥ ८ ॥ सजे सकल सामन्त नृप, दिनकर दुति दीपन्त । तिन अग्गें तन तुरक दल, प्रति दिसि दूरि पुलंत सेझबाल सुखपाल रय, बेसरि करभ अपार ।