पृष्ठ:राजविलास.djvu/१४३

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राजविलास । बिधि कित्तहि जौ ए बंधै, तो सर सायर तोल । होइ सही कै हिन्दुति अबनि सुनाम अडोल १११।। सुनि ऐसी मह प्रभु श्रवन, करी हाम सर काज । अनुक्रमि प्राए उदय पुर, सब दल बद्दल साज ॥११२ संबत सतरासै सु परि, संवच्छर दस सात । उतरयौ मास असाढ़ कौ, बिन घन बज्जत बीत ११३ भावन किंपिन हूं अयो, भाद्रव परि दुर्भध्य । मेघ बिना नवखंड महि, प्रज चल चलिय प्रत्यध्य११४ बिकल भये नर भन्न बिन, भूगहिं अभख भखन्त । कन्त तजत निज कामिनी, कामिनि तजत सुकन्त ११५ मात पिता हू निठुर मन, बेंचत बालक बाल । रर बरिरंक करंक परि, दिशि दिशि रोर दुकाल॥११६॥ पशु पडी पाए प्रलय, प्रजा प्रलय पावन्त । कोपिय काल कराल कलि, धीर न कोइ धरन्त११७ ॥कवित्त ॥ पश्चिम पवन प्रचंड बजत अहनिसि सु बंध बिनु । 'अथिर उतारू पाभ प्रात प्रहरेक बहत पुनि ॥ कर अधिक करि किरन तपत मध्यानहिं तापन । प्रचलत पश्चिम पहुर अनिल शीतल असुहावन ॥ निशि तार नक्षत्र निर्मल निखरि बद्दल बिद्य त गाज बिन । भय भीत 'चिन्ह दुरभक्ष के देखि सकल जग भौ दुमन ॥ ११८ ॥