पृष्ठ:राजविलास.djvu/१४२

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१३५ राजविलास। सुधन सलीता तंबु कसि, भरे विबिघि बहु भार १०० कनक तोल ऐराकि हय, चढ़ राण चतुरंग । रज रंजित धरि गगन वि, उरझत दलहि कुरंग१०१॥ प्रान पौंन प्रेरित प्रबल गाज गुहिर गति लाल । प्रति दिसि पूरित पेषियहि, दल ज्यों जलधि कलोल ॥ १० ॥ ससकि शेष कूरमि कसकि, मसकि महीधर मेर। झलझलि जलनिधि जलझलकि कंपिय बरुन कुबेर१०३ सुखही सुख से संचरत, लहु लहु करत मुलाम । पिरकत पुहवि पहार पथ, सजि सजिसहल सकाम॥१०४ अद्भुत थानिक पिक्खि इक, ललिता सलिल समेत । निकरी ग्रावा फारि नग, दिसि दिसि शोभा देत१०५ थपि मुकाम तिन थान कहि, सहल चढ़ सु सनेह । केहरि क्रोड कुरंग कपि, गिरिवर पशु अनिगेह १०६ नग बिचि जहँ निकरी नदी, देखत तहां दिवान । नीम मात्र तिम नीर मधि. सरवर कौं सहिनान१०७ मोहित अरु प्रति भट प्रमुख, पूछे पुरुष पुरान।' अपरि पूर्ण इन उदक मैं, बन्ध्यो किन बन्धान १०८ कहि प्रोहित तब जोरि कर, कैल पुरा प्रभु काज । गुरु सलिता र गोमती, सलितनि में सिरताज १०८ अमर राण इँहि आइके, किन्नौ हौ कमठान । परि सरिता पय पूर ते', बन्ध्यो नहीं बंधान ११०