पृष्ठ:राजविलास.djvu/१४७

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१४० राजबिलासा एक एक गज धर सु अग्ग सत सलपकार सज ॥ बिबुध विश्व का समान सु सयान सलप श्रु त । बेलि वृक्ष बहु बिध बिचित्र सुर असुर अलंकृत । लगि बेलदार नर उभय लष क्षिण क्षिति धर झारन्त खनि । कन्धे कुदाल दन्ताल कसि ते नर उति लरक्क गनि॥ १४१ ॥ चउलष प्रबल मजूर लगे कमठान नारि नर । सकट अद्ध लख सकल वृषभ लख लक्ख महिष वर ॥ लक्खक करभ सुलेखि ओर प्रवहन अपरम्पर । दिन प्रति सहसदि नार खरच लग्गत साडम्बर ॥ प्रति दिहिं कौस पँच दश परधि हार डोर लगि गिरि गहन । राजेश राण रवि राज सर धर पद्धर किय सघन बन ॥ १४२ ॥ सलित पाट सु बिसाल अधिक डोरी अष्टादश । मध्य पुलिन मरु थल समान चलि सकत न मानस॥ बहतु बाह षट ऋतु प्रवाह वल सीर सजल जल । संकति थान सभा निधान तिन तट शीहरि तल ॥ थिर थप्पि नीम तिन यह प्रथम पट्टकट्टि पत्थर प्रबल । घनरहट बरस टिंकुरी करि सोषि रसातल जल सकल ॥ १४३ ॥ उग्गम दिसि तिन अग्ग अचल इक कोस सहज तट तिन अग्गे फुनि नीम दीन दुआ कोश दिग्घ थट ॥