पृष्ठ:राजविलास.djvu/१६७

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राजविलास। धन सट्टे रक्खे धरनि, षग्ग महा बल पोइ ॥८॥ ॥ कवित्त ॥ षेती हम कुल पग्ग षग्ग हम अषय षजानह । षग्ग करें बस पलक नाम हम षग्ग निदानह ॥ पल दल पंडन षग्ग षेत इच्छत हम षग्गह । क्षिति रक्षन फुनि षग्ग अहितु भग्गो इनि अग्गह ॥ षग धार तित्य क्षत्री धरम आवागमनहि अपहरन । सो षग्ग बन्ध हम सूर सब धरय न साहि षजान धन ॥ ८०॥ धन षजान नहिधरय करय नन एह नबल कर । जे कीनी जसराज सेव सो करिहैं सुन्दर ॥ आगे हू आलमह भये बड़ बड़े महा भर । किनहि न ऐसी कीन धरे किन तुरक मुरध्धर । निश्चे युएह है है नहीं रसना ए नर पट्टिहो। कमधज्ज रज्ज करतार किय महियल सो क्यों मिट्टिहों ॥ ८१॥ ॥दोहा॥ जा ऐसी यवनेस सों जपहु दो कर जारि । किंपि न दे रहोर कर कैसी लक्ख करोरि ॥२॥ बेगि गयो दिल्ली बहुरि दूत साहि दरवार । सकल उदंत सुनन्त ही असपति कुप्पि अपार ॥८३ कवित्त ॥ कितिक एह कमज हमहि सत्य रखे हठ । दोलति हमहि यु दीन सु तो मुझे न चित्त मठ८४॥