पृष्ठ:राजविलास.djvu/१६८

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१६१ राजविलास । रसा हमारी रहे बहुरि हम सों षग बंधै । राजा करि हम राखि सर यु हम ही पर संधै ॥ कृत हीन सकल कापुरुष ये कुटिल ते यु सूधे करों। असपती साहि पोरंग हों धाराधर भुजबल धरों ॥ ४ ॥ बैरी ए बिष बेलि फले जनु रूष सरिस फल । जैसो नृप जसवन्त भयो त्योंहीं ए हैं भल ॥ मार- वारि धर मारि बिदिग इन गिन गिन बट्टो। करि पद्धर गढ़ कोट के बिजन पद ते कट्टो । ल्याऊं सुख जन लछि सब कहों सोइ निश्चै करों । असपती साहि ओरंग हों तो भल दिल्ली पै भरों ॥ ५ ॥ यों कहि करि अभिमान तबल टंकार वह किय । बजे चढ़न सुबग्ग हेट हय गय रथ हकिय । नारि गोर धज नेजवान कमनैत बिबिधि परि । कुहकबान. नीसान तोब सब्बान सोर भरि ॥ चतुरं- गिनि सज्जिय असंख चसु जनु उच्छरिय समुद्र जल । बढ़ी अवाज घन सकल बसु जग्गि अग्गि पाराब झल ॥८६॥ सहस तीन सुडाल मेघ माला विसाल मनु । अंजन गिरि उनमान अंग चंगह उतंग धनु ॥ झिलि कपोल मद भरत गुज.मधुकर ग्रहणंतह । दशन सउज्जल दिग्घ घंट घुघरू घ्रणेणंतह । पचरंग झूल पट कूल मय मुज्झिमर ढाल सिंदूर सिर । पिलवान