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पृष्ठ:राजविलास.djvu/१७४

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राजविलास । १६७ ॥ कवित्त ॥ कलह जीति कमधज्ज सेन भग्गी सुलतानी । झंड नेज झकझोरि तोरि डेरा तुरकानी ॥ हय गय लुहि हजार लुट्टि केउ लख धन लिनो। स्वामि बिना संग्राम कहर अरि दल सं किनो । पैंतीश कोश पच्छो फुल्यौ सहिजादा सुबिहान को। पत्ते सुबीर सब जोधपुर हठ रख्यो हिँदुवान को ॥ ११८ ॥ ॥दोहा॥ परि पुकार अजमेर पुर सुनि मोरंग सु बिहान । कमधज जुरि जीते कलह सेन भगी सुलतान ॥ ११॥ जाने हिंदू जोर वर न तजें टेक निदांन । कलह किये नावे सुकर सोचे चित सुलतान ॥१२०॥ करते तो हम ए करी राठोरनि स रारि । इन अग्गे फुनि पाहटें है पतिसाही हारि ॥१२१॥ फिरि बसीठ फुरमान लिषि पठयो से पतिसाह । करन मेल कमधज्ज पें राखन रस दुहु राह ॥१२२ ॥ ॥ कवित्त ॥ बुल्लय बचन बसीठ मिट्ठ घन इट्ट सुद्ध मन । सुनहु रहवर सूर वीर तुम युद्ध बियक्खन । कीनो हम रण संग प्रवल तुम मान परखन ॥ परि तुम बड़ रजपूत राह रखन अभंग रन । हम तुम सुप्रीति ज्यों आदि है त्यों राखहु रस रीति तुम ॥ आखे सु