पृष्ठ:राजविलास.djvu/१८८

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राजविलास । १८९ देइ दिलासो दूत को फेरि लिषे फुरमान ॥ सब राठौरनि सत्य को सुन्दर बिधि सनमान ॥१८३॥ ॥ कवित्त ॥ राज राण मति मेर तदपि इह लषि चतुरंतन । महाराय रावरह राव रावत सब राजन ॥ पूछे निय उमराव कहो कैसा मत किज्जै। काम परयो कमधज- नि साहि दल सज्यो सुनिज्जे ॥ अक्खे सुताम उमराव इह जानि चित्त वृत्तीहि जिन । बेगे बुलाउ प्रभुरटुवर पुहवी रक्खहु अप्प पन ॥ १८४ ॥ सुनि इह श्री महाराण लिषे फुरमान सुलापन । सुनहु रतुवर सूर सदा हम तुमहिं सग्गपन ॥ सजि आवहु हम शरण भूलि नन धरहु चित्त भय । हो अभंग बर हिन्दु षग्ग सब असुर करों षय ॥ सुलतान समर करि संहरों म्लेछ रहें को हम सँमुष । सत पंड करों बर समर सजि दुष्ट तुमहिं जो देइ दुष ॥ १५ ॥ सेष सकल संहरों सैद पारों सब सप्यर । पच्छारों सु पठान लोदि बल्लोची भक्खर ॥ सरवानी भंभरिय हनो हबसी निय हत्यहिं । रन रोलवो रुहिल्ल मुगल सु करों बिन मत्थहिं ॥ गाडों धर रूमी गक्खरी उजबकनि सद्धों सु असि । कहि राजराण कमधज्ज हों रक्खों यों तुम रंग रसि ॥ १६ ॥ ... उज्जरि करि अंग्गरो ढाहि ढिल्ली ढंढोरों। लाही-