पृष्ठ:राजविलास.djvu/२०३

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१९६ राजविलास । ॥ दोहा॥ गरिब दास मोहित सुगुरु, अक्खिय तिन फिरि एह। एक सुमंत सु अरज इक, अब धारहु सु सनेह ॥७१॥ प्रभु मैं सकल पहार पति, जित्तहु पर्वत जोर । घाट घाट रिपु घेरि के, बेगे देहु बहोर ॥ ७२ ॥ विग्रह इह के बरस लॉ, सुबढयौ जानि विशेष । अगनित दल असुरेस पें, हम मन इह अंदेश ॥ ३ ॥ ॥ कवित्त ॥ ये सब अद्रि अभंग नीर छाया युत निर्भय । जंग करहुं यवन से जरिग घन घाट सदा जय ॥ लगें न तह इन लगा असुर कोटिक जो प्रावहिं । बके निज बर बीर मंडि अब असपति ढावहिं ॥ आपके पंच सत पंच अरि होइ तऊ रक्खें यु हनि । इहि मंतहि श्री महाराण निति असपति दल प्रकनल गिनि ॥ १४ ॥ उदयाराण अभंग सक चीतौर समेसर । प्राए इन ही अचल परयो जब साहि अकब्बर ॥ सर भर किय संग्राम बरस द्वादश लों बिग्रह । अंत भगो असु- रेश गयो सिर पटकि स्वयं गृह ॥ ए अचल किए इक लिंग हर अचल राज के काज तुम्ह । इह मंतहि श्री महाराण निति अप्प सु जानि सुमल्लि अम्ह ॥७॥ प्रगटे राण प्रताप जंग फुनि इहि गिरि जिते ।