पृष्ठ:राजविलास.djvu/२३

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राजबिलास । तरहटी तीर तरंगिनी, गंभीर गंग सु संगनी । गढ़ सज्जियै चतुरंगनी, आवै न कहि आसंगनी ॥ १॥ गढ़ मध्य बहु गंभीर है, सर कुण्ड बापि सनीर है। निरषे सु सर्व निवांन जू, यहु असिय च्यारि प्रमान जू ॥ २॥ मुख भीमकुण्ड सुमानिय, जसु तीर गोमुख जानियै। पयधार पतत प्रबाहनी, अवलोकतें उ- च्छाहनी ॥३॥ उठि प्रात तच्छ अन्हाईये, गुरु रोग सोग गमा- इयै । प्रति एह तीरथ उत्तम, सुप्रसंसितं पुरुसोत्तमं॥ महि चित्रकोट सु मंडनी, दुर्गायु आसुर दंडनी। प्राधानता प्रासादयं, बोलंत नभ सों बादयं ॥५॥ कल कीर यंभ सुकारनी, नर नारि नेन निहारनी। नभ लेोक मिलि नव पंडयं, बल चक्रतिन चढ़ि पंडयं ६। मेवार धर सम मेदनी, नन अवर चित्त उमेदनी । महि चित्र कोट समानयं, गढ़ कोन पावहिं गानयं॥७॥ रिनयंभ मंडव रेवतं, सुर असुर किंनर सेवतं । आबू सुगढ आसेरयं, अवगाढ़ गढ़ अजमेरयं ॥८॥ ___ ग्वालेर अलवर गज्जना, विक्रमरु बंधुर व- ज्जना । गूगौर नर वर गाहिये, शिव सांहि गढ साराहियें ॥८॥