पृष्ठ:राजविलास.djvu/२४५

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२३८ राजविलास। जरी पटकल । ढलकति ढंकिय वास सुढाल । बने किन पिट्ठहि डोल बिसाल ॥ १३ ॥ पढ़ें धत धत्त मुहें पिलवान । सचे कर अंकुश विद्यु समान । पताक प्रलंब बने पचरंग । जरी पट कूल सुचिन्ह सुचंग ॥ १४ ॥ जरे पय लाह सुलंगर जोर । किधों करि श्याम घटा घन घोर ॥ चरकिय अग्ग रु पच्छ चलंत। खरे इतमाम महा मयमंत ॥ १५ ॥ एराकिय प्रारबि अश्व उतंग । कछी कश्मीर कँबोज कलिंग ॥ बंगालिय कोकनि सैंधवि बाज । पयं पथ वायु पये पँखराज ॥ १६ ॥ मनस लाषिय रंग सुवंश । हरी हरडे अरु बोर सुहंस । किते किरडे तनु नील कुमेत । सुसिंहलि रोझिय रंग सभेत ॥ १७ ॥ अंबारस भीर मक्कि अपार । तुरंजे ताजि तु- रक्त तुषार ॥ किलकिले कातिले केइ किहार । गंगा- जल गारुडे के गुलदार ॥ १८ ॥ बिराजति साकति स्वर्ण बनाव । जरे नग मुत्तिय हीर जराव । गुही बर बेनिय श्याम सुकंध। फुदा गलि रेसम डोरि सुबंध ॥ १६॥ - ततत्थेइ नच्चत ज्यों नट तान । पुलंतन पखिय पुज्जत मान ॥ सचंचल चालने चीकनें चौष । सप- क्खर सज्जर हिंस सरोष ॥ २० ॥